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सीओपी26 में भारत और दक्षिण​ एशिया का क्या है दांव पर?

सितंबर, 2019 में भारत के कोलकाता शहर में जलवायु परिवर्तन पर कड़े कदम उठाने की मांग करते हुए लोगों ने मार्च निकाला। दुनिया भर में पर्यावरण के लिए काम करने वाले समूह सीओपी26 में कड़े कदम उठाने की मांग कर रहे हैं।
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दो दिन बाद , पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद से जलवायु परिवर्तन पर अब तक की सबसे अहम वार्ता होनी है, जिसमें ग्लोबल क्लाइमेंट एक्शन पर फैसला किया जाएगा। यह वार्ता ब्रिटेन के ग्लासगो में 31 अक्तूबर से 12 नवंबर के बीच होनी है।

दक्षिण एशिया में दुनिया की एक चौथाई आबादी रहती है और कुछ ऐसे देश जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं। संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के तहत वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर अगली वार्ता से पहले दक्षिण एशियाई देश अपने विकास संबंधी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के मुद्दे को उठाने की तैयारी कर रहे हैं।

सीओपी26 पार्टियों का 26वां सम्मेलन है, जो 31 अक्तूबर से लेकर 12 नवंबर तक ब्रिटेन के ग्लासगो में आयोजित हो रहा है। साल 2015 में यूएनएफसीसीसी के 197 सदस्यों के बीच किए गए पेरिस समझौते के बाद सीओपी26 सम्मेलन को वैश्विक जलवायु कूटनीतिक हिसाब से बेहद अहम माना जा रहा है। पेरिस में देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कमी लाकर प्री-इंडस्ट्रियल लेवल पर ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की कसम खाई और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे बनाए रखने का लक्ष्य हासिल करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर योगदान निर्धारित किया।

सीओपी26 का एजेंडा:
पांच साल बाद, पेरिस समझौते को कार्यान्वित करने के लिए एक नियम पुस्तिका को अंतिम रूप देने को सभी देश एक मंच पर जुट रहे हैं। कुछ औद्योगिक देश और सिविल सोसायटी ग्रुप को भी उम्मीद है कि सभी देश पहले से अधिक महत्वाकांक्षी नेशनली डिटरमिनेट कंट्रीब्यूशन (एनडीसी) प्रस्तुत करेंगे। वहीं यूएनएफसीसीसी सचिवालय ने जोर दिया है कि सभी देश अपने एनडीसी को अपडेट कर लें।

कोरोना महामारी के कारण 2020 में इस पर काम नहीं हो पाया, जिसके चलते संयुक्त राष्ट्र ने बैठक स्थगित कर दी थी। इस साल उसी एजेंडे के साथ ​फिर से वार्ता होने जा रही है। इसमें शामिल देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की उप​लब्धियों को मापने और संभावित रूप से व्यापार करने के तरीके पर आम सहमति तक पहुंचने की आवश्यकता होगी। यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है, जिसके चलते पिछले वर्षों में नियम पुस्तिका को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। साथ ही सदस्य देशों को ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने के लिए किए गए राष्ट्रीय वादों को पूरा करने की आवश्यकता होगी।

वर्तमान में दुनिया भर में 2.7 डिग्री सेल्सियस तापमान की वृद्धि जारी है, जिसके चलते अपरिवर्तनीय पर्यावरण परिवर्तन और बाढ़, हीटवेव, चक्रवात, असामान्य बारिश जैसी घटनाएं बढ़ सकती हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिक निकाय इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार, दुनिया भर के देश वर्ष 2040 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के लिए प्रयासरत है। वहीं दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं उन देशों के विशाल बहुमत में शामिल हैं, जो कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं।

सीओपी26 और दक्षिण एशिया का स्टैंड:
भारत की जलवायु प्रतिज्ञाओं में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना शामिल है, जिसका अर्थ है कि धीमी गति से सही, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था के साथ—साथ उत्सर्जन में भी वृद्धि होने की उम्मीद है। हाल ही में थिंकटैंक क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने देश की जलवायु प्रतिज्ञाओं और कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की नीतियों को अपर्याप्त करार दिया है। थिंकटैंक क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने के लक्ष्य के प्रतिज्ञाबद्ध देशों के प्रयासों का विश्लेषण करता है।

बांग्लादेश और पाकिस्तान ने अपने कार्बन उत्सर्जन में भारी कटौती करने का वादा किया, लेकिन दोनों देश जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढांचे विशेषकर कोयला और गैस में निवेश करना जारी रखे हुए हैं। बांग्लादेश ने कहा कि अगर उसे अमीर देशों से पैसा मिलता है तो वह उत्सर्जन को और भी कम कर सकता है।

भारत में थिंकटैंक वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक अर्थशास्त्री उल्का केलकर कहती हैं, ‘सभी देश पहले से ही जलवायु परिवर्तन को रोकने पर सहमत हैं। इस बार सीओपी में ग्रीनहाउस उत्सर्जन में तेजी से कटौती करने के लिए कार्य—योजना और जलवायु परिवर्तन संबंधी खतरों से निपटने के लिए धन की आवश्यकता है।’

पाकिस्तान के बस्ती लहर वल्ला में सूखी मिट्टी में काम करता एक किसान। जलवायु परिवर्तन के चलते दक्षिण एशिया में लोगों पर सूखे समेत प्राकृतिक आपदाओं की मार पड़ रही है।

सीओपी26 प्रेसीडेंसी की ओर से जारी नोट के मुताबिक, विकासशील देशों को कार्बन मुक्त करने और जलवायु परिवर्तन संबंधी खतरों से निपटने में मदद करने के लिए प्रति वर्ष जलवायु वित्त कोष में 7499.35 अरब भारतीय रुपये (100 बिलियन अमेरिकी डॉलर) धन जुटाने की दिशा में काम करना भी शामिल होगा, यह एक ऐसा लक्ष्य है, जिसकी डेडलाइन पूरी होने के दो साल बाद भी अचीव होने की संभावना नहीं दिख रही है। नोट में कहा गया, पार्टियों से यह भी अपेक्षा की जाएगी कि वे अपनी एनडीसी योजनाओं और वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के बीच के अंतर को दूर करें, जोकि सभी देशों को नेट जीरो की ओर इशारा करते हुए रणनीति वि​कसित करने के लिए प्रोत्साहित करना है।

नेट—जीरो ​पर चर्चा:
दक्षिण एशिया में इस सदी के उत्तरार्ध में दुनिया के संभावित अगले सबसे बड़े प्रदूषक के रूप भारत सुर्खियों में रहा है, अगर चीन और अमेरिका अपने यहां कार्बन उत्सर्जन कम कर लेते हैं तो जैसा कि दोनों ने वादा किया है। वहीं अंतरराष्ट्रीय साझेदार मोदी सरकार पर भारत में कार्बन उत्सर्जन को नेट—जीरो करने के लिए 2050 की समय सीमा तय करने का दबाव डाल रहे हैं। सीओपी26 की तारीख जैसे—जैसे नजदीक आ रही है, उसी के साथ पर्यवेक्षकों को इंतजार है कि चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, फ्रांस और ब्रिटेन जैसी अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं का अनुसरण करते हुए सभी देश स्टैंड लेंगे।

केलकर बताती हैं कि अमीर देशों ने जो उदाहरण पेश किया है, वह विकासशील देशों में विश्वास जगाने के लिए पर्याप्त नहीं है। वह कहती हैं कि इस साल के सीओपी में आगामी कुछ सालों में उत्सर्जन में कमी लाने के लिए तत्काल ठोस कदम उठाने की जरूरत है। साथ ही प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जलवायु वित्त के लक्ष्य को पूरा करने की आवश्यकता है। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय कार्बन व्यापार पर वर्षों से लंबित वार्ता को बंद करने की आवश्यकता है।

थिंकटैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के अर्थशास्त्री वैभव चतुर्वेदी बताते हैं कि भारत और उसके दक्षिण एशियाई समकक्ष देशों के लिए नेट—जीरो पर पहुंचना बहुत जरूरी है, लेकिन सभी देशों के लिए इसकी समय सीमा 2050 नहीं हो सकती है। सभी देशों को अपनी आंतरिक स्थितियों को देखते हुए नेट—जीरो के लिए अंतिम समय सीमा का वर्ष तय करना होगा। दक्षिण एशिया के वार्ताकार कहते हैं, यह सुनिश्चित करना होगा कि वे नेट—जीरो में इक्विटी पर चर्चा के लिए जोर दें। साथ ही दुनिया के इस हिस्से में जलवायु शमन और अनुकूलन में सहायता के लिए बड़ी मात्रा में धन जुटाया जाए।

भारत सरकार ने अभी तक सीओपी26 के लिए अपनी रणनीति को अंतिम रूप नहीं दिया है, लेकिन पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के ​हालिया भाषणों में जलवायु संबंधी कार्रवाइयों को राष्ट्रीय रूप से निर्धारित किया जाने पर जोर दिया गया है। साथ ही समय सीमा को इस दशक की बजाय आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया है।

दक्षिण एशिया सीओपी26 में किन मुद्दों को उठा सकता है?
दक्षिण एशिया के देशों के लिए मध्य शताब्दी तक नेट—जीरो प्रतिबद्धता अव्यवहारिक हो सकती है। बांग्लादेश और नेपाल ने पेरिस समझौते के सिद्धांतों के अनुरूप अपने यहां शमन प्रयासों को बढ़ाते हुए सीओपी26 सम्मेलन से पहले जलवायु प्रतिज्ञाओं के अपडेट प्रस्तुत किए हैं। वहीं भारत को अभी यह तय करना है कि वह सीओपी26 में नए वादों के साथ आएगा या नहीं? हालांकि, अभी तक मोदी प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया है कि वह विकसित देशों के दबाव में जलवायु महत्वाकांक्षाओं को नहीं बढ़ाएंगे। उनका कहना है कि देश के पास पहले ही सबसे महत्वाकांक्षी स्वच्छ ऊर्जा का लक्ष्य हैं, जिसमें 2030 तक 450GW स्वच्छ ऊर्जा क्षमता स्थापित की जाएगी।

नवीकरणीय एनर्जी का लक्ष्य होने के बावजूद भारत अपनी कुल ऊर्जा जरूरतों का 80 फीसदी जीवाश्म ईंधन, विशेष कर कोयले से पूरा करता है। यह इतना बड़ा आंकड़ा है, जिसे ग्लासगो में जांच का सामना करना पड़ सकता है। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) में सतत ऊर्जा खपत कार्यक्रम का नेतृत्व करने वाले क्रिस्टोफर बीटन कहते हैं, ‘ऊर्जा नीति विकल्पों के जोखिम को समझना उतना ही अहम है, जितना इसके अवसर को समझना। मुझे लगता है कि यह सभी देशों को कोयले के निर्माण को रोकने के लिए मजबूरने करने की कोशिश कम है और इससे होने वाले नुकसान का आकलन करने के बारे में ज्यादा है।’

भारत के परिपेक्ष्य में बीटन कहते हैं कि यहां पहले से कोयल से बनने वाली बिजली की क्षमता से अधिक आपूर्ति है, जिसका अर्थ है कि कोयला का इस्तेमाल कम करते ही कई प्रोजेक्ट खटाई में पड़ जाएंगे। कोयले पर अधिक निर्भरता का मतलब यह भी है कि नई अक्षय ऊर्जा क्षमता बढ़ाने से भी अर्थव्यवस्था को डीकार्बोनाइज करने में मदद नहीं मिल सकती है। वह आगे कहते है, जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को स्वच्छ ऊर्जा की ओर स्थानांतरित करने के लिए एक प्रस्ताव है, जिसे पर हर देश काम कर सकता है। यह कुछ ऐसा है कि निश्चित रूप से बड़ी महत्वाकांक्षाओं का समर्थन करेगा और परिवर्तन की गति को बढ़ाएगा। साभार :  www.thethirdpole.net

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